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सोजे-ए-वतन मुंशी प्रेमचंद


शोक का पुरस्कार मुंशी प्रेम चंद
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मैं शिमले से वापस आने की तैयारी कर रहा था। मेहर सिंह उसी रोज मुझसे विदा होकर अपने घर चला गया था। मेरी तबीयत बहुत उचाट हो रही थी। असबाब सब बँध चुका था कि एक गाड़ी मेरे दरवाजे पर आकर रुकी और उसमें से कौन उतरा मिस लीला! मेरी आँखों को विश्वास न हो रहा था, चकित होकर ताकने लगा। मिस लीलावती ने आगे बढक़र मुझे सलाम किया और हाथ मिलाने को बढ़ाया। मैंने भी बौखलाहट में हाथ तो बढ़ा दिया मगर अभी तक यह यक़ीन नहीं हुआ था कि मैं सपना देख रहा हूँ या हक़ीक़त है। लीला के गालों पर वह लाली न थी न वह चुलबुलापन बल्कि वह बहुत गम्भीर और पीली-पीली सी हो रही थी। आख़िर मेरी हैरत कम न होते देखकर उसने मुस्कराने की कोशिश करते हुए कहा-तुम कैसे जेण्टिलमैन हो कि एक शरीफ़ लेडी को बैठने के लिए कुर्सी भी नहीं देते।
मैंने अन्दर से कुर्सी लाकर उसके लिए रख दी। मगर अभी तक यही समझ रहा था कि सपना देख रहा हूँ।
लीलावती ने कहा-शायद तुम मुझे भूल गये।
मैं-भूल तो उम्र भर नहीं सकता मगर आँखों को एतबार नहीं आता।
लीला-तुम तो बिलकुल पहचाने नहीं जाते।
मैं-तुम भी तो वह नहीं रही। मगर आख़िर यह भेद क्या है, क्या तुम स्वर्ग से लौट आयी?
लीला-मैं तो नैनीताल में अपने मामा के यहाँ थी।
मैं-और वह चिठ्ठी मुझे किसने लिखी थी और तार किसने दिया था?
लीला-मैंने ही।
मैं-क्यों-तुमने यह मुझे धोखा क्यों दिया? शायद तुम अन्दाजा नहीं कर सकती कि मैंने तुम्हारे शोक में कितनी पीड़ा सही है।
मुझे उस वक़्त एक अनोखा गुस्सा आया-यह फिर मेरे सामने क्यों आ गयी! मर गयी तो मरी ही रहती!
लीला-इसमें एक गुर था, मगर यह बात तो फिर होती रहेंगी। आओ इस वक़्त तुम्हें अपनी एक लेडी फ्रेण्ड से इण्ट्रोड्यूस कराऊँ, वह तुमसे मिलने की बहुत इच्छुक हैं।
मैंने अचरज से पूछा-मुझसे मिलने की! मगर लीलावती ने इसका कुछ जवाब न दिया और मेरा हाथ पकडक़र गाड़ी के सामने ले गयी। उसमें एक युवती हिन्दुस्तानी कपड़े पहने बैठी हुई थी। मुझे देखते ही उठ खड़ी हुई और हाथ बढ़ा दिया। मैंने लीला की तरफ़ सवाल करती हुई आँखों से देखा।
लीला-क्या तुमने नहीं पहचाना?
मैं-मुझे अफ़सोस है कि मैंने आपको पहले कभी नहीं देखा और अगर देखा भी हो तो घूँघट की आड़ से क्योंकर पहचान सकता हूँ।
लीला-यह तुम्हारी बीवी कुमुदिनी है!
मैंने आश्चर्य के स्वर में कहा-कुमुदिनी, यहाँ?
लीला-कुमुदिनी मुँह खोल दो और अपने प्यारे पति का स्वागत करो।
कुमुदिनी ने काँपते हुए हाथों से ज़रा-सा घूँघट उठाया। लीला ने सारा मुँह खोल दिया और ऐसा मालूम हुआ कि जैसे बादल से चाँद निकल आया। मुझे ख़याल आया, मैंने यह चेहरा कहीं देखा है। कहाँ? अहा, उसकी नाक पर भी तो वही तिल है, उँगुली में वही अँगूठी भी है।
लीला-क्या सोचते हो, अब पहचाना?
मैं-मेरी कुछ अक्ल काम नहीं करती। हूबहू यही हुलिया मेरे एक प्यारे दोस्त मेहर सिंह का है।
लीला-(मुस्कराकर) तुम तो हमेशा निगाह के तेज़ बनते थे, इतना भी नहीं पहचान सकते!
मैं खुशी से फूल उठा-कुमुदिनी मेहर सिंह के भेष में! मैंने उसी वक़्त उसे गले से लगा लिया और खूब दिल खोलकर प्यार किया। इन कुछ क्षणों में मुझे जो खुशी हासिल हुई उसके मुक़ाबिले ज़िन्दगी भर की खुशियाँ, हेच हैं। हम दोनों आलिंगन-पाश में बँधे हुए थे। कुमुदिनी, प्यारी कुमुदिनी के मुँह से आवाज़ न निकलती थी। हाँ, आँखों से आँसू जारी थे।
मिस लीला बाहर खड़ी कोमल आँखों से यह दृश्य देख रही थी। मैंने उसके हाथों को चूमकर कहा-प्यारी लीला, तुम सच्ची देवी हो, जब तक जिएँगे तुम्हारे कृतज्ञ रहेंगे।
लीला के चेहरे पर एक हल्की-सी मुस्कराहट दिखायी दी। बोली-अब तो शायद तुम्हें मेरे शोक का काफ़ी पुरस्कार मिल गया।

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